चरण पूजन और भारत की बदलती परम्परा

डॉ अतुल गोयल
अर्थशास्त्र
बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, झाँसी

भारत आज वह नहीं जो दस साल पहले हुआ करता था। नरेन्द्र दामोदर मोदी, भारत के वह प्रधानमंत्री है जो बेहद गरीब और पिछड़े समाज से आते हैं। पिछड़ा समाज के किसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री बनाना अलग बात थी और उसका सफल होना एक अलग बात है।

मोदी जी ने अपनी निःस्वार्थ और राष्ट्रवादी नीतियों से 10 सालों में ही भारत को वह उपलब्धि प्रदान की जो कि पिछले 67 सालों से प्राप्त नहीं थी। तथापि सरकारी कर्मचारियों के स्वभाव में वह अनुकूल परिवर्तन नहीं आया जो एक सुसंस्कृत, लोकतांत्रिक देशों में अपेक्षित है।
इस 26 जनवरी को मैं अपने क़स्बे के आसपास के 5 सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में विशेष अतिथि, आमंत्रित था। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों के, मुख्य सड़क के दूर, अधिकांश विद्यालयों में आज भी वैज्ञानिक, डॉक्टर, शिक्षकों या अभियंताओं को पूजने के बजाए राज नेताओं को पूजने की परम्परा है।

हमारे यशस्वी प्रधानमंत्री जहाँ आज लोगों की नैया को किनारे लगाने बाले केवट को गले लगा रहे, समाज की “अहिल्या” का उद्धार कर रहे या सफ़ाई कर्मचारियों की चरण वंदना कर रहे तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में आज भी राजा और उनका परिवार पूजने की परंपरा है।इन विद्यालयों में आज भी, समाज में योगदान देने बाले महापुरुषों के स्थान पर कांग्रेस के पुराने नेताओं की फोटो देखकर आप दंग रह जाएँगें।

सरकारी ऑफिसों में किन विभूतियों के फ़ोटो होते हैं यह प्रायः राज्य सरकारें तय करती है। इंदिरा गाँधी के समय में सरकारी ऑफिस में उनके परिवार के व्यक्तियों तथा कांग्रेस के चुनिंदा व्यक्तियों के फ़ोटो लगाने अनिवार्य थे। किसी अधिकारी या नेता को इसे अस्वीकार करने का साहस नहीं था, जिन व्यक्तियों ने इन नियमों का उल्लंघन किया उन्हें आपातकाल के दौरान प्रताड़ित किया गया। इंदिरा गांधी को सत्ता पर अपने परिवार का अधिकार होने का अभिमान था। उनके व्यवहार से अनेकों मौक़ों पर ऐसा महसूस हुआ जैसे कि वह ब्रिटेन के हाउस ऑफ़ बिंडसर, या बिंडसर राजघराने की तरह, सत्ता को अपने परिवार की जागीर समझती थीं।

भारतीय जनता पार्टी की स्थापना- गरीब, पिछड़ा, वंचित और स्वभाव से फ़क़ीर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक के प्रचारकों ने कि थी, उन्होंने फ़ोटो लगाने की परम्परा को आगे नहीं बढ़ने दिया। भारतीय जनता पार्टी में व्यक्ति पूजा की परम्परा नहीं रही, भाजपा सरकार ने राज्य सरकारों को यह छूट प्रदान की है कि वह अपनी मान्यताओं के अनुसार दफ्तरों में तस्वीरें लगाने के लिए विभूतियों की लंबी लिस्ट में से किसी का चयन कर सकती हैं।

भगवंत मान ने पंजाब के मुख्यमंत्री पद का कार्यभार सँभाला तो सचिवालय स्थित उनके दफ्तर की दीवार पर टंगी तस्वीरें भी बदल गईं। पंजाब के नए मुख्यमंत्री के ऑफिस की दीवार पर अब सिर्फ दो तस्वीरें टंगी हैं- पहली महान स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह की और दूसरी देश को संविधान की सौगात देने वाले डॉ. भीमराव आंबेडकर की।
अमूमन मुख्यमंत्री कार्यालय, राजभवन समेत अन्य सरकारी दफ्तरों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीरें भी लगी होती हैं। हालांकि, तस्वीरों को लेकर कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। इसलिए, कई बार तस्वीरें हटाने को लेकर मामला कोर्ट तक पहुंच चुका है।

केंद्रीय नियम के अभाव में सरकारी दफ्तरों में तस्वीरें लगाने के लिए विभूतियों का चयन राज्य सरकारें ही करती हैं। इसके लिए राज्य सरकारें नियम बनाती हैं जिनके तहत विभूतियों की सूची जारी की जाती है। सरकारें बदलती हैं तो नियम भी बदल जाते हैं और नियम बदलते हैं तो विभूतियों की लिस्ट भी बदल जाती है।

वर्ष 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक गठबंधन (NDA) के केंद्र की सत्ता में आने के बाद से देश की राजनीति में ध्रुवीकरण काफी ज्यादा बढ़ गया है। समय के साथ-साथ केंद्र पर विपक्ष की पार्टियों के आरोप भी बढ़ने लगे हैं। वो अब जोर-जोर से कहने लगें हैं कि केंद्र संघ-वाद (गणतांत्रिक) पर प्रहार करता है जो संविधान की मूल भावना पर कुठाराघात है।

वहीं केंद्र भी, राज्यों पर देशहित के मामलों पर भी दलगत राजनीति करने का आरोप मढ़ता है। बहरहाल, हमने इसकी चर्चा इसलिए की ताकि समझा जा सके कि ऐसे माहौल में किसी विपक्षी दल की सरकार से अपने दफ्तरों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाने की उम्मीद करना ही बे-माने हो जाती है, खासकर तब जब वो ऐसा करने को संवैधानिक या कानूनी तौर पर बाध्य नहीं हैं।
तमिलनाडु की सरकार ने तो इसी आज़ादी का हवाला देकर कोर्ट की भी मंज़ूरी ले ली कि वो सरकारी दफ्तरों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीरें के बजाए अपनी पार्टी के स्वर्गीय नेताओं की फ़ोटो लगाएँगे। यह मामला दो वर्ष पहले अप्रैल का है, राज्य की ईके पलानिस्वामी सरकार ने मद्रास हाई कोर्ट से कहा कि वह सरकारी दफ्तरों में वर्तमान और पूर्व मुख्यमंत्रियों की तस्वीरों के साथ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की तस्वीरें भी लगाने को बाध्य नहीं है।

 

उसने केन्द्र की भाजपा सरकार के आदेश का हवाला देकर कहा कि आदेश में ‘सकता है’ शब्द का उपयोग हुआ है, जिसका अर्थ है कि आदेश बाध्यकारी नहीं है। इस प्रकार वह वहाँ, समाज में खाई पैदा करने वाले, सीमित क्षेत्र के व वर्ग के विशेष नेताओं के फ़ोटो लगाने का अधिकार माँग लाए।

कहना ग़लत नहीं होगा कि ऑफिस में किन नेताओं की फ़ोटो होगी, यह एक राजनैतिक प्रश्न बन चुका है। अधिकारी अपने नेता के फ़ोटो, अपने नफ़े नुक्सान और नेताओं की चरण वंदना के उद्देश्य से करते हैं, लेकिन शैक्षणिक संस्थानों को इस विद्वेष से दूर होना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में नेताओं के फ़ोटो के स्थान पर भारत के आदर्श- राम, कृष्ण, महाराणा प्रताप और शिवाजी के फ़ोटो अनिवार्य होने चाहिए अन्यथा सरकारी अधिकारी आज भी राज परिवार को पूजने की अपनी आदतों के चलते अभी भी गांधी परिवार के व्यक्ति का पूजन करते रहेंगे।

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