डकैत को पुरस्कार मिलने से वह साधु नहीं हो जाता

पं. राजू शर्मा नौंटा

झाँसी : संसार परिवर्तनशील है। यहां कोई भी चीज स्थिर नहीं रहती है। हर चीज का स्थान और स्वरूप बदलता रहता है। शायद इसी परिवर्तन के कारण वेदान्त की शब्दावली में इसको क्षर कहा गया है। नाम और रूप मय संसार परिवर्तनीय है।

अनन्त काल पहले जिस धरा खंड पर समुद्र या नदियां हुआ करती थी। कालान्तर में उसका रूप बदला और आज वहां पर्वत और मैदान दिखलाई पड़ते हैं। इसी परिवर्तनीय व्यवस्था का परिणाम है कि इस धरा पर न जाने कितनी सभ्यताओं ने जन्म लिया, विकसित हुईं और फिर जमींदोज हो गईं। इनके अवशेष पुरातत्वविदों को समय समय पर मिलते रहे हैं। हड़प्पा और मैसोपोटामिया, बेबीलोन की सभ्यता के भग्नावशेष हमारे समक्ष उपस्थित हैं।

विज्ञान कहता है कि जिस जीवाश्म ईंधन का आज हम उपयोग कर रहे हैं। वह करोड़ों वर्ष पहले दफ्न हुए सजीवों का बदला हुआ रूप मात्र है। अन्तरिक्ष विज्ञान के अन्वेषणों पर यदि ध्यान दें तो पता चलता है कि ब्रह्माण्ड का एक एक कण निरंतर गतिशीलता की अवस्था में है। आकाश गंगाएं लगातार गतिशील हैं। संगम तट पर गंगा नदी के कटान का मैं स्वयं गवाह हूं। ग्लेशियर पिघल रहे है। गौमुख का आकार सिकुड़ता जा रहा है। कल को इन सबका स्वरूप और स्थान क्या हो, कोई नहीं कह सकता।

खैर, यह तो एक संदर्भ था परिवर्तन के सम्बन्ध में। यहां पर मूल विषय सम्मान स्वरूप दिए जाने वाले पुरस्कार के विरूपित मायने पर यहां बात करना चाहता हूं मैं। तो साहिबान, पुरस्कार एक हिन्दी शब्द है। इसका मतलब होता है किसी उम्दा कार्य करने के लिए दिया जाने वाला सम्मान और पारितोषिक। पुरस्कार पर वैसे सामान्यत: उन लोगों का नैषर्गिक अधिकार होता है जो समाज हित में कोई उपक्रम करते रहते हैं, वो चाहे कला के क्षेत्र में हो, साहित्य के क्षेत्र में हो या कि सेवा के क्षेत्र में।

ऐसा माना जाता कि पुरस्कार जिसे मिला है, वह निश्चित रूप से समाज हितैषी और सम्मानित व्यक्ति होगा ही। लेकिन वर्तमान में इस परम्परा में एक विरूपण की स्थिति की निर्मिति हुई है। आज पुरस्कार मिलना मिलाना सियासती मायनों पर निर्भर हो गया है। वास्तविक पुरस्कार के जो हकदार लोग होते हैं वो स्वयं किसी पुरस्कार की चाहना नहीं रखते है। आज ऐसे लोगों को बहुतायत रूप से नेपथ्य में धकेल दिया गया है।

आज सम्मान के हकदार जिन्हें मंचों पर पुरस्कार दिए जाते है वो है वह, जो जनता के हक के पैसे में सेंध लगाकर ऐशो आराम जुटाते हैं और समाज सेवी कहलाते हैं। डकैती अपहरण कर पैसा जुटाते हैं, चुनाव जीतकर नेता कहलाते है। याद रहे, यह सब बातें हवा हवाई नही, स्वयं के अन्वेषण से लिख रहा हूं।

यहां एक उदाहरण देना चाहूंगा! मेरे एक मित्र एक प्रतिष्ठित NGO में काम करते थे दिल्ली में, जिसका बॉस संस्था के नाम पर मंहगी गाड़ियों में घूमता था और मौज करता था। काम के नाम पर स्टाफ से कहा करता था कि काम कम हो, पर रिपोर्टिग धांसू होनी चाहिए।

हालांकि मेरे मित्र ने फिर इस अपराध बोध से वह संस्था छोड़ दी थी। उन्होंने अनुभूत किया कि समाज सेवा के नाम पर कहीं न कहीं पाप को पोषण दिया जा रहा है। विडंबना देखिए कि बाद में उस संस्था के बॉस को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला।

आज पुरस्कार सिर्फ सियासती लाभ और चापलूसी के बिना पर दिए जाते है। सियासती फायदे के लिए एजेण्डे खड़े करने में इन पुरस्कार प्राप्त व्यक्तियों का योग होता है।

खैर, मैं सिर्फ आम जन के लिए लिखना चाहता हूं चेताने हेतु कि पुरस्कार मिलने से किसी व्यक्ति का आंकलन अच्छे व्यक्ति के रूप में मत कर लेना, वह डकैत भी हो सकता है। ज्यादातर सम्भावना डकैत, लुटेरे और शोषक होने की ही है। हां समाज सेवी की खाल में लिपटा हुआ डकैत।

सो स्वविवेक जरूरी है इंसानी परख की खातिर

इतना याद रहे- अपवाद हर जगह होते हैं।

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Kuldeep Tripathi

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