हिरण्यकश्यपु की हत्या के उपद्रव के रुप में मनाई जाती है कीचड़ की होली
झांसी का एरच हुआ करता था कभी हिरण्यकश्यपु की राजधानी एरिकेच्छ
झांसी। रंगों के त्योहार होली से तो सभी परिचित हैं। इसे अलग-अलग तरीके से मनाने की परम्परा देश के कोने-कोने समेत विश्व के कई स्थानों पर है। इस परम्परा के शुरु होने से लेकर यह तथ्य कम लोग ही जानते हैं कि बुन्देलखण्ड समेत अधिकांश स्थानों पर होली जलने के बाद प्रथमा को कीचड़ की होली क्यों मनाते हैं। इसके पीछे विभिन्न पुराणों में तथ्यात्मक वर्णन दिया गया है। ऐसा बताया गया है कि यह राक्षसों के उपद्रव की कहानी है। जिसे बाद में कीचड़ की होली का नाम दिया गया। साथ ही एरच में मिली होलिका और प्रह्लाद समेत नरसिंह की मूर्तियां इस बात को प्रमाणित करती हैं कि कहीं अन्यत्र नहीं बल्कि एरच में ही भक्त प्रह्लाद का जन्म हुआ था।
सनातन धर्म को सभी धर्मों का मूल माना जाता है। साथ ही भारतीय संस्कृति सभी को जोड़ना सिखाती है। यही कारण है कि भारत में हर दिन कोई न कोई त्योहार मनाया जाता है। मान्यताओं के देश में रंगों के त्यौहार होली को भी पूरे देश में मनाया जाता है। इस त्यौहार का उद्गम बुन्देलखण्ड की हृदयस्थली में स्थित एरच को माना जाता है। श्रीमद् भागवत पुराण में सतयुग में भक्त प्रह्लाद का प्रसंग आता है। वर्णन है कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु दो राक्षस भाई थे। इनकी राजधानी एरिकेच्छ बताई गई है। जो अब परिवर्तित होकर एरच हो गया। एरच जिला मुख्यालय से करीब 80 किमी की दूरी पर बामौर विकासखण्ड में स्थित है। कथा में बताया जाता है कि जब पृथ्वी का हरण कर उसे पाताल लोग में हिरण्याक्ष ले जा रहा था। तब भगवान विष्णु ने वाराह अवतार में आकर हिरण्याक्ष का वध किया था। साथ ही पृथ्वी की रक्षा कर उसे वापस रख दिया था। तब से हिरण्याक्ष का भाई हिरण्यकश्यपु भगवान विष्णु को अपना सबसे बड़ा दुश्मन समझने लगा था। और फिर हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रह्लाद हुआ। उसका पालन पोषण मुनि आश्रम में होने के कारण वह बालक विष्णु भक्त हो गया। यह बात उसके पिता को नागवार गुजरी और उसने अपने पुत्र को तरह-तरह की यातनाएं देकर विष्णु की भक्ति से अलग करना चाहा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। राक्षसराज हिरण्यकश्यपु को इस पर क्रोध आ गया। और उसने अपने पुत्र को मारने के तमाम तरीके अपनाए। उसकी एक बहन थी होलिका। उसे वरदान था कि वह जलती आग में बैठ जाएगी तो भी उसे आग की लपटें छू भी नहीं सकती थी। प्रह्लाद को उसके हवाले कर दिया गया। लेकिन प्रभु इच्छा के चलते प्रह्लाद के स्थान पर होलिका ही जल गई। अन्त में जब हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद को मारने के लिए तलवार उठाई तो नरसिंह रुप में भगवान विष्णु प्रकट हो गए। और उन्होंने हिरण्यकश्यपु का वध कर दिया। अपने राजा का वध होते देख हजारों राक्षसों उत्पात मचाना शुरु कर दिया। और नरसिंह भगवान को घेर लिया। नरसिंह जी ने उस सबका भी वध कर दिया। तब से इस उपद्रव को कीचड़ की होली माना जाने लगा।
कथा व्यास गौरांगी देवी ने बताया राक्षसों की होली
इस संबंध में कथा व्यास गौरांगी देवी बताती हैं कि कुछ दिन पूर्व तक इस होली को अच्छे लोगों की होली नहीं कहा जाता था। बल्कि उत्पात मचाने वाले ही इस होली को खेलते थे। इसके बाद जब भक्त प्रह्लाद का राज्याभिषेक कर दिया गया तो उत्पात थम गया। और फिर खुशी में रंगों और फूलों की होली मनाई गई। इसीलिए दौज पर रंगों की होली होती है।
इतिहासविद् राज्यमंत्री हरगोविन्द कुशवाहा मानते हैं उपद्रव की होली
वहीं बौद्ध शोध संस्थान के उपाध्यक्ष,राज्यमंत्री दर्जा प्राप्त इतिहासविद् हरगोविन्द कुशवाहा भी बताते हैं कि बुन्देलखण्ड ही वह धरा है जिसने विश्व का मार्गदर्शन किया। वह भी इसे उपद्रवी राक्षसों के उत्पात की होली बताते हैं। बाद में जब दोनों पक्षों में समझौता हो गया तो सभी खुशी में रंग और पुष्पों की वर्षा कर होलिका के दहन को उत्सव की तरह मनाते हैं। उन्होंने बताया कि यह महज कोरी कल्पना नहीं है। अंग्रेजों ने झांसी के गजेटियर में भी इसका जिक्र किया है। उन्होंने गजेटियर के पृष्ठ 339 पर एरच और ढिकौली का जिक्र है। उन्होंने बताया कि खुदाई के दौरान एरच में 250 फुट जमीन के नीचे मिली पत्थर की होलिका और उसकी गोद में प्रह्लाद की मूर्ति इस बात का प्रमाण है कि यह वही एरिकेच्छ है,जो कभी हिरण्यकश्यपु की राजधानी हुआ करता था। वहां पर आज भी कई सिक्के लोगों को खेतों में मिलते रहते हैं जो उस शासन की पुष्टि करते हैं।