राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त महाविद्यालय में हुआ संगोष्ठी का आयोजन
झांसी। बुधवार को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त महाविद्यालय चिरगांव, में द्वितीय सामान्य शिविर के दोपहर भोजन काल के उपरांत लोक संस्कृति पर एक संगोष्ठी प्राचार्य द्वारा आयोजित की गई जिसमें, सर्वप्रथम सरस्वती जी के चित्र पर माल्यार्पण करके एवं वंदना गीत के द्वारा संगोष्ठी का आयोजन प्रारंभ किया, जिसमें प्रमुख वक्ताओं में इतिहास विभाग के प्रवक्ता डॉ0 अशोक मुस्तरिया द्वारा व्याख्यान प्रस्तुत किया गया।
उन्होंने बताया कि भारतीय लोक संस्कृति श्रमशील समाज की संवेदनात्मक आवेगों की अभिव्यक्ति रही है। धरती के हर हिस्से के मूल निवासियों ने अपनी लोक संस्कृति की रक्षा की है। लोक संस्कृति प्रकृति की गोद में पनपती है। लोक संस्कृति के उपासक या संरक्षक बाहर की पुस्तकें न पढ़कर अन्दर की पुस्तकें पढ़ते हैं। लोक संस्कृति की शिक्षा प्रणाली में श्रद्धा-भक्ति की प्राथमिकता रहती है। उसमें अविश्वास,तर्क का कोई स्थान नहीं रहता। लोक संस्कृति में श्रद्धा भावना की परम्परा शाश्वत है, वह अन्तः सलिला सरस्वती की भाँति जनजीवन में सतत प्रवाहित हुआ करती है। लोक संस्कृति एवं लोकोत्तर संस्कृति तथा विश्व की सभी संस्कृतियों का बीज एक ही है। यह बीज लोक संस्कृति ही है। लोक संस्कृति ब्रह्म की भाँति अवर्णनीय है। वह व्यापक, अनेक तत्त्वों का बोध कराने वाली, जीवन की विविध प्रवृत्तियों से संबन्धित है, अतः विविध अर्थों व भावों में उसका प्रयोग होता है। मानव मन की बाह्य प्रवृत्ति-मूलक प्रेरणाओं से जो कुछ विकास हुआ है उसे सभ्यता कहेंगे और उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों से जो कुछ बना है उसे संस्कृति कहेंगे। लोक का अभिप्राय सर्वसाधारण जनता से है जिसकी व्यक्तिगत पहचान न होकर सामूहिक पहचान है। दीन-हीन, शोषित, दलित, जंगली जातियाँ, कोल, भील, गोंड जनजाति संथाल, किरात, हूण, शक, यवन आदि समस्त लोक समुदाय का मिलाजुला रूप लोक कहलाता है। इन सबकी मिलीजुली संस्कृति, लोक संस्कृति कहलाती है। देखने में इन सबका अलग-अलग रहन-सहन है, वेशभूषा, खान-पान पहनावा, चाल-व्यवहार, नृत्य, गीत, कला-कौशल, भाषा आदि सब अलग-अलग दिखाई देते हैं, परन्तु एक ऐसा सूत्र है जिसमें ये सब एक माला में पिरोई हुई मणियों की भाँति दिखाई देते हैं, यही लोक संस्कृति है। लोक संस्कृति कभी भी शिष्ट समाज की आश्रित नहीं रही है उलटे शिष्ट समाज लोक संस्कृति से प्रेरणा प्राप्त करता रहा है। लोक संस्कृति का एक रूप हमें भावाभिव्यक्तियों की शैली में भी मिलता है जिसके द्वारा लोक -मानस की मांगलिक भावना से ओत प्रोत होना सिद्ध होता है। वह दीपक के बुझने की कल्पना से सिहर उठता है। इसलिए वह दीपक बुझाने की बात नहीं करता दीपक बढ़ाने को कहता है। लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसर्गिक अनुभूतिमयी अभिव्यंजना का चित्रण लोक गीतों व लोक कथाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र सर्वथा दुर्लभ है। लोक साहित्य में लोक मानव का हृदय बोलता है। प्रकृति स्वयं गाती गुनगुनाती है। लोक जीवन में पग पग पर लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं। लोक साहित्य उतना ही पुराना है जितना कि मानव इसलिए उसमें जन जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित है । इसी के साथ डा0 अशोक मुस्तरिया द्वारा अपना वक्तव्य समाप्त किया, इस संगोष्ठी में महाविद्यालय के समस्त सम्मानित प्रवक्तागण एवं कर्मचारी उपस्थित रहे।