मजदूरों का पश्चाताप: अब कभी गांव छोड़कर बाहर जाने की नहीं करेंगे गलती
अपने गांव में ही खेती करने की जता रहे इच्छा,पैदल चल चलकर हुआ बुरा हाल
झांसी। लाॅकडाउन के चलते बेरोजगार हुए मजदूर अब पश्चाताप के आंसू बहाते नजर आ रहे हैं। थोड़े से पैसे कमाने के चक्कर में लाॅकडाउन के बाद सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर वापस घर जाने वालों को अब अपने गांव और घर से बेहतर कुछ नहीं लग रहा है। अपनी जन्मभूमि को ही वे सबसे उचित स्थान बताने में लगे हुए पाश्चाताप करते नहीं थक रहे हैं। यह कहना है नासिक से पैदल चलकर बहराइच जाने वाले करीब डेढ़ दर्जन युवाओं का।
कोरोना के कहर से बचने के लिए देश भर में लगाए गए लाॅकडाउन ने कोरोना को परास्त करने में तो अहम भूमिका निभाई ही है। साथ ही उन लोगों को भी पश्चाताप करने का मौका दिया है जो अपने गांव छोड़कर अधिक पैसे कमाने के लिए विभिन्न महानगरों में निकल जाते थे। अब वे पछताते हुए नहीं थक रहे। पीठ पर अपने रोजमर्रा की वस्तुओं से भरा बैग लटकाए,पैरों में टूटी हुई चप्पल पहने,पैदल चलते चलते चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई,और मन में अपने गांव पहुंचने की आस लिए करीब डेढ़ दर्जन युवा मजदूर यह कहते नजर आए कि अब वे अपना गांव छोड़कर थोड़े से पैसे कमाने के चक्कर में अन्य किसी जगह जाना पसंद नहीं करेंगे।
लाॅकडाउन की बढ़ती तिथि के चलते निकल पड़े पैदल
29 अप्रैल की शाम उप्र के झांसी पहुंचे बहराइच के करीब 18 युवा मजदूर लाॅकडाउन के दूसरे चरण के लागू होने के बाद इस निराशा के साथ पैदल ही अपने गांव के लिए चल पड़े कि अब ज्यादा दिन तक यहां रहा नहीं जा सकता। किसी के पास रुपए समाप्त हो गए थे। तो किसी की जेब में अभी 150 रुपए थे। कोई महज 15 रुपए डालकर 12 दिन पूर्व नासिक से चला था और अभी भी उसकी जेब में वही 15 रुपए पड़े थे। युवाओं की इस भीड़ में रमेश,रामदेव,राकेश,कुन्नी और ऐसे ही कुल मिलाकर करीब डेढ़ दर्जन युवा शामिल थे। इनमें से कुछ तो नाबालिग थे। सभी नासिक में अंगूर व केलों आदि फलों के खेतों में काम करते हुए कुछ कमाकर भविष्य में बड़े आदमी बनने का सपना संजोये थे। सपना देखना गलत भी नहीं था,लेकिन उन्हें क्या मालूम था कि कोरोना जैसी मायावी महामारी जो किसी के भी शरीर में प्रवेश करने के 7 दिनों तक तो यह भी पता नहीं चलने देती कि वह इसका शिकार हो गया है,के भंवर में फंस जाएगें।
कहीं मिल गया भोजन तो कभी चलना पड़ा भूखा
युवा मजदूरों का कहना है कि पिछले 12 दिन की यात्रा में उन्होंने जीवन के बहुत अनुभव किए। उन्हें लगभग सभी चैकपोस्ट पर रोका गया। उनके आधार नम्बर और पता पूछा गया। लेकिन उन्हें भोजन के लिए बहुत कम जगह पूछा गया। इन 12 दिनों में से 2-4 बार तो ऐसा हुआ जब दो दिन तक उन्हें भोजन के बिना ही काम चलाना पड़ा। इन अनुभवों के चलते ही उन्हें अपने गांव और घर से बेहतर अब कुछ नहीं दिखाई दे रहा।