प्रकृति ने कोरोना से कहा थैंक्स,एक ही झटके में बदल दिया माहौल
बुन्देलखण्ड का पर्यावरण हो गया था छड़ी लेकर चलने वाली दादी जैसा
झांसी। मानव को यूं तो जैव जगत में विकास के सर्वोच्च शिखर पर रखा गया है। लेकिन प्रकृति में विद्यमान तमाम घटकों के साथ सामंजस्य के बाद ही उसका जीवन सुनिश्चित होता है। सर्वोच्च स्थान वाले मनुष्य की जिम्मेदारी भी प्रकृति में बहुत बड़ी है। लेकिन 1992 मंे पर्यावरण और विकास का सिद्धांत आ गया। और उसके बाद तो जैसे मनुष्य ने अपनी जिम्मेदारी की सारी सीमाएं ही तोड़ दी। विकास की दौड़ में मनुष्य इस कदर अंधा होता चला गया कि वह यह भी भूल गया कि प्रकृति को सहेजना भी उसका सबसे अहम दायित्व है। प्रकृति का एक खास गुण है स्वयं की मरमम्त करना। लेकिन मनुष्य ने पर्यावरण को इतनी क्षति पहुंचायी कि उसकी खुद से खुद को दुरूस्त करने की पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो गयी और पूरी दुनिया में न केवल मानव जीवन बल्कि पर्यावरण के अन्य घटकों के जीवन पर भी खतरा मंडराने लगा।
वर्षों तक पर्यावरण संरक्षण के लिए दुनिया भर के देश हर वर्ष पयार्वरण दिवस या ऐसे ही अन्य मौकों पर एकत्र होकर वर्तमान की बदतर हालत के लिए एक दूसरे को कोसते रहे। आज कोई भी पर्यावरण की भयावह स्थिति के लिए खुद को जिम्मेदार मानने को तैयार नहीं है। विकसित देश विकासशील देशों पर प्रदूषण फैलाने का दोष मंढते नजर आते हैं और विकासशील देश तकनीक के अभाव में प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं कर पाने का राग अलापते रहे। हर कोई पूरी ताकत से यह साबित करने के प्रयास में लगा है कि पृथ्वी पर जीवन को लेकर जो गंभीर संकट गहराया है। उसमें उसका कोई हाथ नहीं है। खुद अपने ही अस्तित्व से जुड़े ऐसे गंभीर मसलों पर दुनिया भर के देशों की चीखपुकार स्वयं को सबसे बुद्धिमान बताने वाले इंसान को कटघरे में खड़ा करती नजर आती है। पश्चिमी सभ्यता के अनुसार अधिक से अधिक उपभोग और विकास की महत्वाकांक्षा ने दुनिया के सभी हिस्सों में ऐसे ही विकास के लिए शुरू हुई अंधी दौड़ में किसी को यह सोचने का समय नहीं दिया कि इस दुनिया में हम अकेले ही नहीं हैं।
और तब प्रकृति ने कोरोना वाॅयरस के रूप में दुनिया के सामने एक संदेश भेजा जिसने इंसान के पूरे सांस्कृतिक विकास के दंभ को घुटने टेकने पर मजबूर करते हुए उसे एहसास दिलाया कि अगर विकास के नाम पर अंधाधुंध दोहन पर लगाम नहीं लगायी तो पृथ्वी पर जीवन खत्म होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा और उसका कारण भी स्वयं वही बनेगा। प्रकृति केवल हमारी जरूरतों को पूरा कर सकती है हमारी कल्पनाओं को नहीं। इस कोरोना काल में प्रकृति ने यह बात साबित भी करके दिखायी कि अगर इंसान उसके अधिकाधिक दोहन के लालच पर रोक लगा ले तो वह खुद ही स्वयं में आये विकारों को ठीक करने की क्षमता आज भी रखती है।
मनुष्य का मखौल उड़ाता कोरोना
आज कोरोना वाॅयरस दुनिया के करीब 180 देशों में तबाही मचाते हुए इंसान का मखौल उड़ाते हुए नजर आ रहा है। ऐसा लगता है मानो वह पूंछ रहा हो कि स्वयं को सबसे बुद्धिमान और वैज्ञानिक तकनीक पर घमंड करने वाले प्रकृति के एक झटके के लिए भी नहीं है। इसका प्रदर्शन प्रकृति पहले भी उत्तराखण्ड में कर चुकी थी। लेकिन तब भी शायद मनुष्य को यह समझ नहीं आया कि प्रकृति से खिलवाड़ किस हद तक जीवन को बर्बाद कर सकता है।
कोरोना के कहर ने थाम दिए विकास की होड़ के कदम
इस वाॅयरस का पृथ्वी पर जीवन के लिए संकट पैदा करने वाले इंसान पर कहर कुछ ऐसा बरपा कि इंसान की चाल, विकास की अंधी दौड,निरंतर आगे बढ़ने और आगे आने के लिए दी गयी कीमत के बारे में कभी विचार न करने वाली सोच की चूलों को हिला कर रख दिया। नतीजा सामने है। लोग सब कुछ छोड मौत की दहशत से घरों में रहने को मजबूर हो गये। तथाकथित विकास के इंजन थम गये, कल कारखानों पर ताले लग गये। इसका परिणाम हुआ कि जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण और न जाने कितने प्रकार के प्रदूषण पर पूरी तरह से रोक लग गयी और प्रकृति ने खुद से खुद को ठीक करने का काम शुरू कर दिया। यह देखकर ऐसा लग रहा है कि मानों प्रकृति मुस्कराती हुई कर रही है कि हे मनुष्य तेरे ही कारण बिगड़ी मेरी हालत पर माथापच्ची करने की बजाएं अगर तू अपने विकास की होड़ में दौड़ते कदमों को रोक लेता और उसे पर्यावरण के हिसाब से चलाता तो हालाता इतने खराब नहीं होते।
गंगा में दिखने लगी डाॅलफिन
बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय में शिक्षक के रुप में तैनात पर्यावरणविद् डा.अमित पाल बताते हैं कि कोरोना कहर के चलते लाॅकडाउन का असर एक वाक्य में बताएं तो कहा जा सकता है कि गंगा में डाॅलफिन दिखाई देने लगी हैं। इससे बड़ा उदाहरण पर्यावरण स्वच्छता का देखने को नहीं मिल सकता।
बुन्देलखण्ड का पर्यावरण हमारी झड़ी लेकर चलने वाली दादी जैसा
पर्यावरणविद् डा.अमित पाल बताते हैं कि हमारा बुन्देलखण्ड कभी पर्यावरण के लिए उदाहरण हुआ करता था। चारों ओर घने व नही दिखाई देते थे। हरे भरे वन यह विश्वास दिलाते थे कि यहां पर्यावरण की समस्या आ ही नहीं सकेगी। उन्होंने बताया कि विकास की दौड़ में हमारा बुन्देलखण्ड क्षेत्र खनन के लिए देश में भी जाना जाता है। झांसी से लेकर बांदा और चित्रकूट तक सभी जनपदों में गिट्टी और मोरम का कार्य बहुतायत में देखने को मिलता है। इसके चलते यहां के पर्यावरण के हालात हमारी दादी मां जैसे हो गए हैं। जो अपने हाथ में या तो छड़ी लेकर चलती हैं। या फिर उनके सहारे के लिए कोई उन्हें चाहिए।
10 गुना ठीक हुआ प्रदूषण
डा.पाल कहते हैं कि हमारे झांसी में सर्वाधिक वाहनों का प्रदूषण है। लाॅकडाउन के चलते प्रदूषण दो महीने से ज्यादा के लिए एकदम बंद हो गया था। इसके चलते पहले वाले झांसी के पर्यावरण से अबका झांसी 10 गुना ज्यादा स्वच्छ और प्रदूषण विहीन हो गया है।